
"पागलपन का गुण" ये सुनने मे बहुत सामान्य लगता है , कभी कभी ऐसा लगता है ये एक समस्या है । पर वास्तव मे ये कोई समस्या नहीं है । आधुनिक चिकित्सा जगत मे इसको बिल्कुल स्वीकारते नहीं है , मनोविज्ञान मे इसको लेकर बहुत विधि सिद्धांत पहले से ही है ।
मैं आज उस पागलपन की बात नहीं कर रहा हु जिसमे व्यक्ति स्वयं को ही भूल जाता है बल्कि पागलपन वो जिसमे एक व्यक्ति प्रौढ़ होकर (जिसका विचार पक गया हो 😅) अंत मे अपने जीवन मे उस ओर चल पड़ते है जिसका उसे कोई ठिकाना नहीं है ।
जब व्यक्ति खुद से ही प्रश्न करने लगता है कि :
व्यक्ति : मैं कौन हूँ ! (नहीं पता )
व्यक्ति : क्या मैं अपने जीवन से संतुष्ट हूँ !? (मैं क्या जानूँ ! )
व्यक्ति : जीवन मे अंतिम पड़ाव मे मैं क्या करू ?
व्यक्ति : जब मैं हु (अस्तित्व है ) तो फिर मरने के बाद मैं क्यों नहीं रहूँगा !?
इस तरह जब व्यक्ति जीवन दर्शन में झाकने लगता है तब समझ लो मियाद पूरी हो चुकी है और पूरा समय बर्बाद हो चुका है । और अज्ञानता मे पूरा जीवन निकल चुका ।
इस तरह की विचार पागलपन नहीं है । यद्यपि इसका कोई तुक और अर्थ नहीं बनता । फिर भी इस तरह की विचार जीवन मे आता है और आनी भी चाहिए । आधुनिक जगत इसे नहीं चाहता । उसके लिए ये बेतुका है और मानसिक समस्या की लक्षण है । जबकि एक सामान्य जीवन मे अगर ये अपने आप आता है तो सही है क्योंकि जीवन का अभिन्न अंग है ।
जब एक छोटा बच्चा 3 साल तक बोलने की प्रयास नहीं करता तो बड़ी तकलीफ है ! क्यों भाई ! क्या बोलना वो जन्म से लेकर आया है ?! मौन शाश्वत है जो वह जन्म के साथ लेकर आता है मगर जगत की मर्जी उसे बोलना थमा देता है । ( ले पकड़ और बोल 😅 )
पागलपन भी उसी तरह जन्म के जुड़ा है , ये जरूरी है ।
जगत मे कहीं पर भी ये नहीं मिलेगा की कैसे हंसा जाए इसे सिखाया जाए ! कोई विधि हसने की इस आधुनिक जगत के लोग विकसित करने की नहीं सोची । हंसने की विधि से जुड़ी किताबें विशिष्ट नहीं हैं, बल्कि आपको लाफ्टर योग और कल्याण से संबंधित विभिन्न पुस्तकें मिल सकती हैं । क्या ये जरूरी नहीं था । पर नीतिवादियों ने इसे उचित नहीं समझा । जीवन जीने का नियम इस तरह बनाया गया कि जीवन मे जो जरूरी है वो जीवन से दूर होता गया । धन बनाया गया था केवल सामानों को फेर बदल के लिए , इन सामानों के अलावा जीवन मे बहुत कुछ था उसे छोड़ कर अब जीवन को पूरी तरह उस धन को एकत्र करने लगा दिया गया है , और बाकी महत्वपूर्ण अनुभवों को मूल्यहीन बनाता हुआ ।
मनुष्य मनुष्यत्व को नष्ट कर रहा है और इसको वो तकनीकी को दोष देता आया है ।
यदि जीवन मे पागलपन का थोड़ा सा भी भाव न हो तो ऐसे जीवन बेकार है ।
-- sankalpmollick