अमन : Sir , जीवन क्या है ?
अमन : हमारी असली जीवन क्या है ?
अमन : जब हमें पैदा होने के पहले पता नहीं होता है कि मैं जीवन में आऊंगा । और एक दिन अचानक जीवात्मा। जीवनमय हो जाती।
अमन : जो ,हमारी सही टाइमिंग है इस ब्रह्मांड में जितना समय मिला एक आत्मा को इस ब्रह्मांड में उस समय से थोड़ा थोड़ा करके जीव को जीवात्मा में रहने समय दिया जाता है जो उसे शरीर में रह कर उस समय को भोगना पड़ता है या , उस समय तक रहना पड़ता है , जो उस आत्मा को इस ब्रह्मांड के समय में से मिला है ।
उत्तर: तुमने यहां कुछ चीजों को मिश्रित कर दिया है,
"जीवन क्या है?" ये प्रश्न उचित है, पर इसका उत्तर तुम्हे प्रकृति देने नहीं देगा या कहीं से मिलेगा नहीं क्योंकि इसके उत्तर ही इसका पूरा सार है, जीवन ही जीवन का उत्तर है। इसे हर एक को स्वयं ढूंढना होता है या समझना होता है।
"असली जीवन क्या है " इस प्रश्न के कई अलग अलग उत्तर है, इसीलिए दर्शन है।
""जब हमें पैदा होने के पहले पता👈 नहीं होता है कि मैं जीवन में आऊंगा । और एक दिन अचानक जीवात्मा। जीवनमय हो जाती""
पहली बात, "पता होना" का अर्थ ये है कि कहीं न कहीं मैमोरी संरक्षित हो रहा है, यानी मस्तिष्क, जन्म से पहले ये नहीं था, इसलिए ये कहना पूर्ण निरर्थक है कि जन्म से पहले क्या था हमे पता क्यों नहीं है, पता हो ही सकता, ये बेकार की बात है।
दूसरी बात,
तुमने कहा कि एक दिन अचानक जीवात्मा, बात सही है, पर ये तुम जो समझ रहे हो ये वो नहीं है। तुम अपने "अनुभव की पुष्टि" को दर्शाने के लिए "जीवात्मा" का प्रयोग कर रहे हो,
जैसे, पहले कुछ नहीं था, अब कुछ है, और जो है वो समझ रहा है चल रहा है बोल रहा है, सारी क्रिया कर रहा है, और अनुभव मिलता जाता है, तुमने इस अनुभव की संज्ञान का दूसरा नाम मात्र दे दिया कि जीवात्मा है बस, है तो भी क्या, और न हो तो भी क्या!!
अगर तुम्हे ये अनुभव न होता, पूर्ण शांत रहते तब!? क्या जीवात्मा का जिक्र अथवा उसकी आवश्यकता होता? क्योंकि जो शांत है उसे अनुभव की क्या जरूरत, क्या जरूरत इन अनुभवों को स्पष्ट करने के लिए जीवात्मा का प्रयोग करे!?? नहीं, बात कुछ अलग है,
जीवात्मा का कार्य स्मृति को संरक्षण करना नहीं है, कौन है ये जीवात्मा, इसे जीवात्मा कहना भी कहां तक ठीक है!?? जीव+आत्मा, या जीवित जो आत्मा, क्यों ये नाम है? अगर जीव आत्मा है तो मृत आत्मा भी होनी चाहिए , ऐसा नहीं है, इसलिए आत्मा का जीवित हो या मृत, देह हो या मुक्त उसे इस शरीर से कोई अर्थ नहीं। जो है वो उस पार है, उसे इस पार से क्यों कोई संबंध जोड़ना।
अगला प्रश्न , तुमने पूछा सही टाइमिंग, कोई टाइमिंग नहीं है, सब खेल है जानने और न जानने का, जो जाना नहीं उसके लिए एक जीवन भी कम पड़ जाए। जो जान सके है,जैसे कोई लाओत्से, कोई बुद्ध, कोई जीसस उन्हें फिर कोई इंतजार नहीं रहता, अष्टावक्र कहते है परमात्मा कहीं नहीं मिल सकता, तुम ठहर जाओ इस क्षण, तो अभी मिल जाए, जीवन का ये सारा खेल बस तुम्हारे शांत का है तुमने यूं ढूंढने बैठे कि गलती कर बैठे, और एक कदम फिसल कर पीछे जा गिरे। तुम्हारा सारा स्मृति केवल समय का बुना जाल है जो तुम्हे भटकाता हुआ समय में आगे ले चलता है।
तुम कहते हो कि ब्रह्माण्ड समय के अंश देता है, फिर क्या हो जाएगा, तुम आत्मा को प्राप्ति हो जाओगे तो फिर भी क्या हो जाएगा! तुम चलो इसके पार, न कोई आत्मा हो न कोई ब्रह्माण्ड, जहां कुछ होगा भी तो वहां माया भी होगा, इसलिए तुम शून्य को चुनो। तुम शून्य हो जाओ। शून्य ही परम शांत है। तुमने सही ही कहा है कि शरीर में आत्मा समय को भोगता है , फिर तो ये भोग ही है। तुम्हे तो परम समाधि चाहिए। जरा तुम ख्याल तो करो प्रकाश की, प्रकाश में तुम देखोगे चारों ओर, तुम्हे जैसे जैसे चीजे दिखाई देगा तुम विचारों में घिर जाओगे, तुम्हारी स्मृति जाग उठेगा, फिर माया की लहर शुरू होगा, वही अंधेरे में, तुम देखोगे एक अकेलापन है, तुम अंधेरे में अपने के सिवाय कुछ और अनुभव न कर पाओगे। अंधेरा तुम्हे अपने आप से मिलाता है, तुम अंधेरे में जरा रहना सीखो, देखोगे कि जैसे जैसे तुम अंधेरे में लीन होते जाओगे तुम्हारा गहरा से गहरा विचार भी नष्ट होने लगेगा। अंधेरा तुम्हे एकांत देगा, अंधेरा तुम्हे शांति की ओर ले चलेगा, काली की यही शक्ति है, तुम जगत में बहुत चल लिए, अब जरा अपने भीतर तो झांक कर देखो, तुम अब तक जगत के समय और जगत के शरीर और आत्माओं के चालों से घिरे रहे, तुम अपने आप को देखना भूल बैठे। तुम अंधेरे में रहोगे तो पाओगे कि अंधेरा अब अंधेरा न रहा एक मद्धिम प्रकाश उदय होता है,ये वो प्रकाश नहीं है, ये तो अपने विचारे उठ कर पुनः पुनः खंडित होता हुआ प्रक्रिया है, ऐसे ही प्रकाशों में तुम अपने दिए स्वयं जला सकते हो। तुम अपने पथ पर स्वयं चल सकते हो।